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प्रार्थना

फलो !
जब महंगे बेचे जाओ
तो तुरंत सड़ जाया करो
छूते ही या देखते ही ।

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मेरा ईश्वर

मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है

मैंने दुखी न रहने की ठान ली

मेरे देवता नाराज़ हैं
क्योंकी जो ज़रूरी नहीं है
मैंने त्यागने की कसम खा ली है

न दुखी रहने का कारोबार करना है
न सुखी रहने का व्यसन
मेरी परेशानियां और मेरे दुख ही
ईश्वर का आधार क्यों हों ?

पर सुख भी तो कोई नहीं है मेरे पास
सिवा इसके कि दुखी न रहने की ठान ली है ।
( काव्य संकलन ‘घबराये हुए शब्द’ से साभार )









एक बुढ़िया का इच्छा-गीत

मैं लगभग बच्ची थी
हवा कितनी अच्छी थी
घर से जब बाहर को आयी
लोहार ने मुझे दरांती दी
उससे मैंने घास काटी
गाय ने कहा दूध पी
दूध से मैंने, घी निकाला
उससे मैंने दिया जलाया
दीये पर एक पतंगा आया
उससे मैंने जलना सीखा
जलने में जो दर्द हुआ तो
उससे मेरे आंसू आये
आंसू का कुछ नहीं गढाया
गहने की परवाह नहीं थी
घास-पात पर जुगनू चमके
मन में मेरे भट्ठी थी
मैं जब घर के भीतर आयी
जुगनू-जुगनू लुभा रहा था
इतनी रात इकट्ठी थी ।







तो {घबराये हुए शब्द}


जब उसने कहा
कि अब सोना नहीं मिलेगा
तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ा
पर अगर वह कहता
कि अब नमक नहीं मिलेगा
तो शायद मैं रो पड़ता ।







चट्टान पर चीड़

पानी पीटता रहा, हवा तराशती रही चट्टान को
दरारों के भीतर गूँजती हवा कुछ धूल छोड़ आती रही हर बार
कुछ धूप कुछ नमी कुछ घास बन कर उग आती रही धूल
धूल में उड़ते हैं पृथ्वी के बीज
छेद में पड़े बीज ने भी सपना देखा
मातृभूमि में एक दरार ही उसके काम आई
चट्टान को माँ के स्तन की तरह चुसते हुए बाहर की पृथ्वी को झाँका
हठी और जिद्दी वह आखिर चीड़ का पेड़ निकला
जो अकेला ही चट्टान पर जंगल की तरह छा गया
उस चीड़ और चट्टान को हिलोरने
चला आ रही है नटों की तरह नाचती हवा
कारीगरों की तरह पसीना बहाती धूप
चट्टान और पेड़ को भिगोने
आँधी में दौड़ती आ रही है बारिश ।

प्रेम

प्रेम ख़ुद एक भोग है जिसमें प्रेम करने वाले को भोगता है प्रेमप्रेम ख़ुद एक रोग है जिसमें प्रेम करने वाले रहते हैं बीमारप्रेम जो सब बंधनों से मुक्त करे, मुश्किल हैप्रेमीजनों को चाहिये कि वे किसी एक ही के प्रेम में गिरफ़्तार न होंप्रेमी आएं और सबके प्रेम में मुब्तिला होंनदी में डूबे पत्थर की तरहवे लहरें नहीं गिनतेचोटें गिनते हैंऔर पहले से ज़्यादा चिकने, चमकीले और हल्के हो जाते हैंप्रेम फ़ालतू का बोझ उतार देता है,यहां तक कि त्वचा भी

गिलहरी और गाय के बहाने

कौन नहीं जानता ये अलग प्रजातियों के प्राणी

पर एक दूसरे से काम लायक जो समाज बनाया जाता है

कोई देवताओं से नहीं बल्कि उनके प्रति मनुष्य की श्रद्धा से सीखे

तो नतीज़े कुछ और निकलेंगे

गिलहरी को मनुष्य पालतू नहीं बना सका या बनाना नहीं चाहता था

क्योंकि वह गाय जैसी दुधारू नहीं हो सकती

अगर होती भी तो आदमी कभी उसे दुह नहीं पाते

लतखोर गाय से लाख गुना चंचल है वह

एकदम पारे जैसी

पारे की चंचलता पारे को सिर्फ़ लुढ़का सकती है, छितरा सकती

अपने पैरों से पेड़ पर उतर-चढ़ नहीं

गाय में भी एक ख़ास गाय है हिमालय की चंवरी गाय

जो संभवतः हूणों और खसों के साथ आई थी

जिसके बछड़े को याक कहते हैं

दोनों की पूंछ के बनते हैं

चलते चलते भी याक स्थूल और स्थिर दिखाई देता है

चंचल गिलहरी की चंवर जैसी पूंछ देख कर

मुझे सुस्त चंवरी गाय और मोटा मन्द याक याद आये

यह समुद्र देख कर हिमालय याद आने की तरह है

एक धरती की विराट जांघों के बीच आलोढ़ित जलाशय हैदूसरा उसके सिर पर चढ़कर जमा हुआ

नीलाशय में पीठाधीश्वर,महाशय श्वेताशय - मीठी नदियों का अक्षय

जैसे किसी पहाड़ से भी दोगुनी-तिगुनी उसकी पगडंडी होती हैवैसे ख़ुद से दुगुनी-तिगुनी होती है गिलहरी की पूंछ

जिसके चेहरे और पूंछ में से कौन ज़्यादा चंचल है कुछ पता नहीं चलताचंचल लहरों से बनी नदी का संक्षिप्ततम शरीर है गिलहरी- पूंछ के अंतिम बाल तक धुली-खिली

मुंह से दुम तक की स्पंदित लहरियों में गिन नहीं पा रहा मैं एक भी लहरगिलहरी की चंवराई चंचलता

क्या याक की घंटे जैसी लटकी ध्यानस्थ दुम बन सकती है?जो अपनी पीठ पर बैठनेवाली मक्खियों कोहमेशा वैसे ही उड़ा देती हैजैसे दुनिया के अनर्थों से दूर रखने के लियेहम उसे भगवानों पर डुलाते हैं

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

अपने अन्दर से बाहर आ जाओ
हर चीज़ यहां किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है
मैं सारे अन्दर - बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूं
दिखते - अदिखते प्रतिबिम्बों से बना
अबिम्बित जिस में
किसी नए बिम्ब की संभावना सा ज़्यादा सुन्दर है
भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है
क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है
भविष्य के भीतर हूं मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है
तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ



अध:पतन
इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आंखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊंचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए

जितना मैं निम्नगा* होऊंगा
और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा
उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा
जनसमुद्र के पास

एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊंचाई पा सकूंगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊंचाई

कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है.

ऊंचाई है कि हर बार बची रह जाती है छूने को

ऊंचाई है किमैं वह ऊंचा नहीं जो मात्र ऊंचाई पर होता हैकवि हूं और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूंहर ऊंचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊंचाई की पूंछलगता है थोड़ी सी ऊंचाई और होनी चाहिए थीपृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊंचाई हैलेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊंचा होना चाहता हैपानी भी, उसकी लहर भीयहां तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भीकोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊंचा उठना चाहता है छल सेजल बादलों तकथल शिखरों तकशिखर भी और ऊंचा होने के लिएपेड़ों की ऊंचाई को अपने में शामिल कर लेता हैऔर बर्फ़ की ऊंचाई भीऔर जहां दोनों नहीं, वहां वह घास की ऊंचाई भीअपनी बताता हैऊंचा तो ऊंचा सुनेगा, ऊंचा समझेगाआंख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने कोलेकिन चौगुने सौ गुने ऊंचा हो जाने के बाद भीऊंचाई है कि हर बार बची रह जाती हैछूने को।

नंदीग्राम और तसलीमा पर लीलाधर जगूड़ी की एक छोटी कविता
विचारधारा की तरहकहीं कहीं बची है चोटियों पर बर्फपर ठंड की तानाशाहीविचारधारा के बिना भी कायम है।

Comments

Ashok Pande said…
इस ब्लॉग के लिये आपको धन्यवाद और बधाइयां. जगूड़ी जी मेरे प्रियतम कवियों में हैं.

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